ग़ुलाम
Friday, October 02,
2015
5:00 PM
आज सुबह जैसे ही घर पहुंचा तो आँखों में नींद थी और बिस्तर को देखती आँखे जैसे बिस्तर पर पहुंचती तो उससे पहले अखबार पे गांधी के पोस्टर्स और गांधी जयंती पे राजनितिक दलों के लोगो ने श्र्द्धांजलि भेंट कर रखी थी...|
पढ़ने लायक कुछ न मिला तो थकान शरीर को तोड़ चुकी थी .. बिस्तर के तकिये पर सिर को रखा था तो FACEBOOK खोला तो सुबह से ही आज़ाद भारत के लोगो ने गांधी जयंती के अवसर पर अपने अपने दुखो को feeling के साथ "SAD , HAPPY ,BORING " रूपों में दर्शा रखा था |
-DRY DAY होने का रोना रो रहे थे ....
-गांधी की फोटो नोटों पे क्यों हैं ....
-ये इंसान राष्ट्रपिता क्यों हैं |
- ये सब पढ़कर नींद ही बेहतर लगी |
नींद बिस्तर नही,सुकूं और थकान मांगती है।
आँख लगने ही वाली थी … कि भाईजान का एक मशवरा कानो से सुना और सीधा दिल में उतर गया - "ग़ुलाम (फिल्म)
शुरू होने वाली है …लगा जैसा कोई दोस्त मिल गया हो …!!
थकान नाम "गुलाम" सुनते गायब थी .. और टी.वी का रिमोट 3 घंटे के लिए कब्ज़े में !!!
बचपन से थिएटर का एक नियम संभाल के रखा है - सीट तब तक न छोड़ना जब तक THE END " न लिखा आ जाये |
फिल्म को बने 17 साल हो चुके हैं ... इस फिल्म को मैंने 17 साल पहले उडांग थिएटर में देखा था ... जिस नज़र से इस फिल्म को जब देखा था तो वो नज़र आज की नज़र के मुकाबले बहुत हद तक बदल गयी हैं |
" तब आती क्या खंडाला "- के इलावा कुछ समझ नहीं आया .. पर इस कहानी के ३ अंश ज़िन्दगी के साथ जोड़कर देखे तो यतार्थ तो आज समझ आया |
कहते है सिनेमा समाज का आइना है ... मेरे लिए तो ये आइना मेरा गुरु हैं |
ग़ुलाम की कहानी में सिद्धू और रोनी की जंग ... बिलकुल महाभारत और रामायण के सार जैसी हैं |
-जिस लड़ाई में बलिदान न हो समझ लो वो लड़ाई " स्वार्थ " के लिए लड़ी जा रही हैं |
सिद्धू की मानवाड़ा स्टेशन पर 10 - 10 की दौड़ ..... अक्सर जब भी ट्रैन को देखता हूँ तो सबसे पहले वो दौड़ याद आती हैं कि आज भी कोई सिद्धू इस ट्रैन के आगे भाग रहा होगा |
फिल्म का नाम ग़ुलाम हैं - बिलकुल हमारे जैसे .... कहानी का हीरो ...हीरो हो कर भी ग़ुलामी करता हारता हैं
सब हारते हैं .... कभी सरकारी दफ्तरों में , न्यालयो में , अफसरों के आगे ..गर नहीं तो वक़्त के आगे |
आज़ादी अपनी सोच पर निर्भर है विषम परस्थितयो में भी सोच स्वतन्त्र हो सकती है और अनकूल परिस्थितयो में भी गुलामी हावी हो सकती है..|
एक बात पूछूँ ? अगर कोई जवाब दे पायेगा ..
सम्पूर्ण आज़ादी क्या हैं -- इतिहास उठाओ और देखो क्या मिला था और सब कुछ कैसे दर्शाया गया |
2 अक्टूबर 1869 को एक इंसान ने जन्म लिया ....
रात दिन आज़ादी के लिए लड़ता रहा ...... उसने क्या गलत किया.....
2 अक्टूबर 1904 को ही एक और इंसान ने जन्म लिया ..
जिसने आज़ादी के लिए जद्दोजेहद की " जय जवान जय किसान " का नारा भी दिया ...
लेकिन दोनों की मौत पर सवाल खड़े हैं ??
दोनों को मौत के बाद भी शहीद तो बहुत दूर कि बात ..आज की जनता उस इंसान से बात करना बेहतर नहीं समझती जो इनकी किसी बात को अच्छा बोल दे.... क्यों ???
ग़ुलाम फिल्म देखते एक सीन में सिद्धू के पिता( दिलीप ताहिल ) जो कि क्रन्तिकारी थे अपने बच्चो को एक सीख देते हैं जो हर उस इंसान में हिम्मत भरती हैं जो मुश्किलो से टकराने के लिए निकलना चाहता है ...........
"लेहरो के साथ तो कोई भी तैर लेता हैं ...असली इंसान वही हैं जो लेहरो को चीर कर आगे निकलता हैं |"
एक हार हुआ इंसान ही जीत का बेहतर मतलब बता सकता हैं -
मेरे लिए ये सिर्फ कहानी नहीं
ज़िन्दगी का सच भी हैं - बुराई देखने वाले उस इंसान की तुलना मैं उस मक्खी के साथ करता हूँ जो पुरे बदन को छोड़ कर सिर्फ घाव पर बैठना पसंद करती हैं |
ऐसा कोई इंसान है तो मुझे जरूर आ के मिले - जो अपने आप को सम्पूर्ण कहता है |
किसी एक आदत को लेकर हम किसी इंसान को सर्वश्रेष्ठ और निचा दिखाते हैं |
गांधी बुरा इंसान नहीं था ...
एक वीर और भगोड़ा हम सब के साथ हर वक़्त होता है .... जवानी सब की जाती हैं .. मौत सब की आती हैं |
उसने सिखाया के बुराई सहना और करना बुरा हैं ..|
उसने जो रास्ता दिखाया उसमें हम चलेंगे ...|
वो तो खुद राजनीती और धर्म को एक थाली में रखने वालो के सख्त खिलाफ था ..
वो कहता था - सिद्धांतो से विमुख राजनीती मौत का फंदा हैं |
उसका कहना था .. हिंदुत्व ब्रमांड जितना वयापक हैं ... राजनीती को सेवा भाव से किया जाये - सत्य, अहिंसा और शोषितों के कल्याण की भावना वेदों से ली जाये , इस वेदांतिक भावना को अपने जीवन की कसौटी पर परखकर और अपने साथ रख कर बेहतर भविष्य की स्थापना की जाए |
ग़ुलाम फिल्म का एक डायलॉग हैं - लड़ेंगे तो खून बहेगा ...नहीं लड़ेंगे तो लोग खून चूसेंगे !!!!!
इसलिए जब हीरो के बाप को पता चलता है के वो कायर हैं तो वो मौत को गले लगता हैं ...
पर यतार्थ में तो दुनिया सब का चूसती है .... जिसका आप नहीं चूसते ..उसका कोई और सरकार,मुल्क लोग चूसते हैं ..
बात सोच कर बोली जाती हैं ...और सोच किताबे देती हैं या तजुर्बा .....||||
एक उम्र के बाद जुबान सिर्फ तज़ुर्बे ही बोलती हैं लेकिन वो उतना ही बोलती है ..
जितना सामने वाला सुनने के काबिल हो -|
वक़्त के साथ ख्याल और विवहार दोनों बदलते हैं |
पर ये लोग तो लड़ने वालो का खून भी चूसते हैं |
शायद इतिहास लिखने वालो ने इतना कुछ लिख दिया है कि प्रजातंत्र इस दुविधा में हैं कि सच क्या हैं -
बस इतना निवेदन करूंगा कि विरोधी लोग अधिक दिमाग न लगाये क्युकी वो तो - मटन कि दुकान पे 260 रुपये किलो मिलता हैं |
बाकी कहानी के अंत में सिद्धू सच का साथ देता हैं , लोगो के दिल से उस रोनी के लिए भय निकलता है और एकजुट हो कर लोग एक रोनी नाम की ग़ुलामी से छुटकारा पाते हैं |
अंत में मै तो हैप्पी WEEKEND & DRY
DAY बोलता हूँ | मैं भी कोई देश सेवक नहीं हूँ ..
देश भक्त नहीं हूँ ..
लिखने के लिए लिखता हूँ ..
सीधी साधी बातें ...
आपकी तिरछी नज़रो में आने के लिए नहीं ....
email id google+- gurusharma252@gmail.com
2 comments:
Well written brother :)
बहुत बहुत शुक्रिया भाई !!!!
हमेशा ब्लॉग पढ़ते रहे ....
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