Wednesday, 16 December 2015

AKS " अक्स "





अक्स



अँधेरे में परछाईयों से वक़्त मापता ....

बड़े से शहर में मुसाफिर लापता .....

गलत हूँ सही नहीं

सामने हूँ वही नहीं

उलझन हूँ सुलझाता नहीं

रास्ता हूँ बताता नहीं

नाम नहीं

घर नहीं
चेहरा नहीं

मेरे अंदर भी नही

मेरे बाहर भी नहीं

आगे भी हैं

पीछे भी है

हँसता नहीं

बोलता नही

नाचो तो नाचता है

भागो तो भागता है

पूछो तो कहे मैं यही

पास जाओ तो है नहीं

कोई बुझारत है

नहीं शरारत हैं

कौन हैं कोई जानता नहीं

किसे दिखाऊ कोई मानता नहीं

अदाकार हैं कोई

नहीं फनकार हैं कोई

चलो तो चलता है

आता जब कोई आग उगलता हैं

हमसफ़र भी है

मुसाफिर भी हैं

कौन हो तुम ?

बोला-तुम में तुम

पूछा क्यों सताते हो ?

-हँसा -खुद से बतलाते हो

बताओ ढूंढते हो किसको ?

-ढूंढते हैं आप जिसको ...

हाथ से मेरे मरोगे !!!

-नहीं खुदखुशी करोगे

क्यों तड़पते को और सताते हो !

-चलता हूँ तो आगे पीछे नज़र आते हो

क्या खता हैं मेरी

-मंज़िल तेरी

वो रूह हैं मेरी

-ये खता तेरी

कौन हो  , मुझे कैसे जानते हो ?

-मैं हूँ अक्स तेरा मुझे नहीं पहचानते हो |

ढूंढते रहे जिसे तुम

कभी नज़रो में
कभी पत्थरों में

तुम सफर में थे ...

मैं हमसफ़र था

जब भी होते तन्हा तो आता कुछ कहने के लिए ...

तुम घिरे होते बादलो में रहने के लिए ...

कभी लफ्ज़ बनकर

आइना बनकर
शिकारे पर पानी की बूँद बनकर
कभी उसकी आँखों में 
कभी तुम्हारे उड़ते ख्वाबो में
तुम्हे एहसास दिलाता वो पेड से उखड़ा पत्ता बनकर
आज मैं दस्तबरदार  होता हूँ ...

तुम्हारे जिस्म के सिवाए मेरे पास कोई घर न था

तुम ही थे जो मेरी डूबती ज़िन्दगी को बचा सकते .....

मैं तुम्हारी जिम्मेदारी वापस लेता हूँ ...

मैंने तुम्हारे लिए एक पेड के नीचे
जमीन और मिटटी खरीद रखी हैं
तुम्हे ज़िन्दगी भर जमीन नहीं मिली
पानी पर घर बसाये माधवभद्र थे
अब चलता हूँ
मुझे माफ़ करना



 पंकज शर्मा -

४:४४

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