अब मैं बदल गया हूँ , वो जिसे सुबह उठने की न जल्दबाज़ी होती थी , बिस्तर से यूँ एक बार दिन को देख लेता और देर तक लेटा रहता था । शायद कोई आएगा और जगायेगा , बस इसी इंतेज़ार में सिर्फ बिस्तर पर लेटे इंतेज़ार लंबा होता गया .... दिन गायब हो जाता ।
कई दिन तक मैंने सिर्फ रातों को देखा ... जब कि रातों के अंधेरे में सिर्फ मुझे कालापन दिखाई देता रहा । रातों को बस पास से गुजरते देखा ।
कभी कभी जी चाहता था इन में भटक जाऊं ।
जो भी घटित हो रहा है उसे बदल दूं अपनी मर्ज़ी से ।
मैं ये वाले मोड़ से मुड़ने की बजाए और आगे चला जाऊं और खो जाऊं । सुनसान गलियों में जहां इतना अंधेरा हो के मैं चाह कर भी न लौट पाऊँ । बस ऐसा कुछ चलता रहे .. भटकते भटकते किसी और जगह निकल जाऊं और नए रास्ते पे आ जाऊं ।
मुझे पता है और मैं सामान्य हूँ
मैं एक अच्छा इंसान हूँ
मगर असामान्य आकर्षित करता है ।
मैं इस विशाल अंधेरे में एक किरण देखता हूँ ।
मैं उसके उल्ट (विपरित दिशा ) भागना शुरू करता हूँ
कहीं मुझे कोई उजाला पकड़ न ले
मैं इतना तेज भागता हूँ ।
सब कुछ बिगड़ता हुआ नजर आने लगता है
मैं क्यों भाग रहा हूँ
कौन अच्छा है
वो जो किरण मेरी तरफ आ रही है
क्यों डर है उसके उगने का
मैं भागते भागते निश्चय कर चुका हूँ
कि मैं अच्छा होने के लिए भाग रहा हूँ
और इतने में देर हो जाती है
मैं पूरी तरह हार जाने से पहले थक जाता हूँ
एक सूरज है रौशनी का जो मेरा सारा अंधेरा निगल चुका है ।
रौशनी से सब सफेद हो चुका है ।
मेरा झूठ सच्च हो गया
या झूठ सच्च
मेरे सामने एक खिड़की है
और कोई है जी बाहर से झांक रहा है
और जोर जोर से मुस्करा रहा है
मैं किसी बंद कमरे में कैद हूँ ।
वो बाहर आज़ाद खुले आसमान में मुस्करा रहा है
जैसे बोल रहा है - मैंने तुम्हें आज फिर पकड़ लिया आज मैं फिर जीत गया ।
चलो जैसे ही वो अपनी जगह से हिलता है
ये खेल फिर दोबारा चलता है ।
मैं रोज़ जीत और हार के बीच आ जे खड़ा हो जाता हूँ ।
और देखता हूँ
खेल खत्म या चलता रहे ।
पंकज शर्मा